आपका प्रिय कवी: यह लिखे माध्यमिक, उच्च माध्यमिक और स्नातक आदि विद्यार्थियों के लिए तैयार किया गया जो आपके परीक्षा तथा लेखन कला को विकसित करने में सहायता करेगी। किस भी प्रकार के त्रुटी की सिकायत के लिए कमेंट में अपना राय हमारें साथ साझा करें।
आपका प्रिय कवी: हिंदी लेख।
अच्छे साहित्य में मनुष्य की रुचि अच्छी बनती है। साहित्य किसी भी देश की सबसे बड़ी धरोहर है। साहित्य में सभ्यता और संस्कृति का श्रेष्ठांश सुरक्षित रहता है। साहित्य की बदौलत वर्तमान का परिष्कार अतीत का जागरण और भविष्य का पुनर्निर्माण संभव होता है। अतः सत्साहित्य के प्रति मेरा रुझान शुरू से रहा है। अच्छे साहित्य के स्रष्टा के प्रति मेरे मन में अपार श्रद्धा है। चूँकि विश्व का प्राचीन साहित्य कविता के रूप में सुरक्षित है इसलिए स्वभावत: साहित्यिक विधाओं में कविता मेरी पहली पसंद है। विश्व के सर्वोत्तम कवियों की सूची बहुत ही लम्बी है। महाकवि बाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, माघ, बाणभट्ट, होमर, गेटे, मिल्टन, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, कबीर, टाल्सटाय, कीट्स, बायरन, शेक्सपीयर, हाली, इकबाल, मीर, फैज आदि के प्रति कौन साहित्यानुरागी श्रद्धालु न होगा जो इनके साहित्य के प्रति पहली नजर में अनुरक्त नहीं हो जायेगा।
कवियों की इतनी लम्बी कतारों के बीच से किसी एक साहित्यकार को चुन लेना और अंगुलिनिर्देशपूर्वक यह बता देना कि यही एकमात्र कवि हैं जो मेरे सबसे प्रिय कवि हैं। बहुत कठिन बात है परन्तु कुछ कारण होते हैं-कुछ आत्मिक, कुछ तार्किक, कुछ अज्ञात प्रेरणाएँ जो सब ओर से ध्यान खींचकर किसी एक में केंद्रित कर देते हैं। मुझसे यदि यह पूछा जाय कि आपके प्रिय साहित्यकार लेखक या कवि कौन हैं। किस कवि ने आप को सर्वाधिक आंदोलित अनुप्राणित किया है तो मैं कहूँगा कि वे जयशंकर प्रसाद हैं।
आधुनिक हिन्दी कवियों, यथा मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, भारतेन्दु, निराला, महादेवी, मेरे हृदय में अनुगूंज उठाती हैं। प्रसाद की कविता में वह सब कुछ है जो एक मनुष्य में होता है। उनमें मानव मन की आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, उल्लास, राग-विराग, राष्ट्रीयता-अन्तर्राष्ट्रीय, मानवीयता और मानवतावाद तथा नयी मानवता है। उनकी कविता में यदि भाव है तो अत्यंत उत्कृष्ट शिल्प है। अत: मैं अपनी दृष्टि से ‘प्रसाद’ को जिस रूप में देख-परख कर समझ सका हूँ, उसी रूप में मैं उन्हें यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा।
‘प्रसाद’ के एक नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ में एक विदेशी पात्रा कार्नेलिया, एक गीत गाती हैं।
अरुण यह मधुमय देश हमारा
और एक अन्य नाटक में हिमालय के शिखरों से पुकारती स्वतंत्रता का दर्पपूर्ण आह्वान सुनायी पड़ता है-
“हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती”
तो ‘ध्रुवस्वामिनी’ में मंदाकिनी वीरों को ललकारती हुई पैरों के नीचे जलचरों को कुचलते हुए सिर पर कौंधने वाली बिजली से खेलते हुए राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग की चुनौती देती है। कवि ‘प्रसाद’ अपनी मातृभूमि के चरणों में अपनी श्रद्धा का शत्-शत् सुमन चढ़ाते हुए कहते हैं-
हिमालय के आंगन में प्रथम किरणों का दे उपहार
ऊषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार
यही नहीं कवि हमारे अतीतकालीन गौरवपूर्ण सांस्कृतिक यात्राओं के क्रोशस्तम्भों की ओर भी इंगित करता है। सर्वप्रथम हम जागे थे। सभ्यता का पहला आलोक भारत में ही फैला था। तत्पश्चात् हमने दुनिया के लोगों को सभ्य, सुसंस्कृत और मानव बनाया। आधुनिक युग के किसी कवि में इतनी प्रखर राष्ट्रीय चेतना, ऐसी अप्रतिम देश भक्ति, ऐसा अतीत अनुराग इस प्रकार का सांस्कृतिक गौरवगान का भाव देखने को नहीं मिलता। यदि कवि में एक ओर राष्ट्रीयता का आवेगपूर्ण स्पंदन है तो वह व्यक्ति पीड़ा के चर्चित चंदन के भी चित्र उकेरता है।
“जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तिष्क में छाई-सी,
दुर्दिन में वह आज आँसू बनकर बरसने आई!!”
प्रसाद में सौंदर्य की अपूर्व दृष्टि है-
“नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा अधखुला अंग
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघ वन बीच गुलाबी रंगे”
‘कामायनी’ तुलसी के मानस (रामचरितमानस) के बाद हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यात्मक काव्यकृति है। मुक्तिबोध इसकी आलोचना करके भी उसका अभिनंदन करना नहीं भूले हैं। ‘कामायनी’ अपने काव्य में, दर्शन में, विचार शैली और प्रस्तुतीकरण में अद्भुत है, विलक्षण है। कवि ने जो प्रतीक लिया है भारतीय संस्कृति के विकास का सूक्ष्म और सम्यक् निरूपण किया है-यह विलक्षण है। कामायनी में नारी के सौंदर्य का, उसके गौरव का भी कवि ने अद्भुत गान किया है। कौन ऐसा हृदयहीन होगा जिसका हृदय-
“जहाँ मरुज्वाल धधकती
चातकी कण को तरसती
उन्हीं जीवन घाटियों की
मैं सरस बरसात रे मन!”
सुन गाकर, तरंगित भावोद्वेलित न हो उठेगा?
‘प्रसाद’ की कविता का थोड़े से मैं मूल्यांकन करना असंभव है। वे छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी कविता में छायावादी कविता की समस्त प्रवृत्तियाँ उपलब्ध होती है। नि:संदेह ‘प्रसाद’ आधुनिक हिन्दी साहित्य के महान् कवि हैं और विश्व के महान् कवियों में गणना के योग्य हैं। उनकी कविता में अनंत की चाह रहस्यमयी भावना और एक अनंत अतृप्ति का भाव भी मिलता है।
“शशिमुख पर यूँघट डाले
आँचल में दीप छिपाए
जीवन की गोधूलि में
तुम कौतूहल से आए”
प्रकृति को सप्राणवती देखना, उसे स्पंदित, जीवित और स्वतंत्र सत्ता सम्पन्न के रूप में परखने की दृष्टि भी ‘प्रसाद’ में छायावाद का चेतना का ही विकास है। नारी के प्रति नवीन दृष्टिकोण, उनकी श्रद्धा से संपृक्त है।
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पगतल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।”
‘प्रसाद’ अपनी कविताओं में आनंदवादी विश्वासों के धनी कवि माने जाते हैं। ‘कामायनी’ ‘रामचरितमानस’ के बाद का हिन्दी का अद्वितीय महाकाव्य है। इसी महाकाव्य में आनंदवादी दृष्टि का प्रतिपादन हुआ है। उसकी आनंदवादी धारणा पर त्रिक-दर्शन का प्रभाव है। प्रसाद को ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे’ जैसी अभिव्यक्तियों के कारण पलायनवादी कह कर बदनाम किया गया है किन्तु जिस कवि ने विश्व को मनोहर कृतियों का नीड़ और कर्मस्थल माना हो और विकासवाद तथा जनवाद की धारणा के निकट पहुँच कर यह कहा हो कि इस दुनिया में जिसमें जितना बल है, वह उतना ही अधिक टिकता है उसे पलायनवादी कैसे कहा जा सकता है-
“यह विश्व नीड़ मनोहर कृतियों का
विश्व सुंदर कर्मस्थल है”
कवि प्रसाद ने एक ओर सौंदर्य को परखने वाली तलस्पर्शी दृष्टि का परिचय दिया है तो खूबसूरती पर लुब्ध-मुग्ध हो जाने की अपनी कमजोरी का व्याख्यान भी दिया है। उनकी कविता में प्रेम, अध्यात्म प्रकृति और दर्शन का प्रतिभाशाली चित्रण मिलता है। अनुभूति में तरल दार्शनिकता अप्रस्तुत गायन और तात्समिक विचारधारा की सम्पृक्ति से उसका समग्र साहित्य भरा पड़ा है। मानवीकरण, बिम्बविघान, प्रतीक विधान, रूपक विधान, अप्रस्तुत विधान उनकी कलागत विशेषताएँ हैं। उनकी भाषा प्रतीकात्मक तात्समिक और संस्कृतिनिष्ठ है। इसी कारण उनके काव्य को सर्वसाधारण सरलता के साथ ग्रहण नहीं कर पाता। कल्पनाएँ थोड़ी दुरुह हैं पर सरस हैं। प्रसाद जी अपनी समग्र काव्यात्मकता में मुझे बेहद अच्छे लगे हैं। यों भी वे हिन्दी के कवियों में से एक तरल अनुभूति के रससिद्ध गायक कवि हैं।
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