दहेज प्रथा: एक सामाजिक अभिशाप।

दहेज प्रथा: समाज के लिए एक अभीशाप है। इस आर्टिकल में एक निबंध लिखेंगे जिसमें दहेज प्रथा के कुरीतियों से विद्यार्थियों को अवगत कराएँगे। यह निबंध दीर्घ होती जो सभी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी होगी। यदि निबंध में कोई कमी रह जाती है तो कमेंट करें हम उसे पूरा करने का प्रत्न करेंगे।

दहेज प्रथा: एक सामाजिक अभिशाप।

एक लेखक ने कहा है कि बेटा और बेटी एक ही हाड़-मांस के बने हुए होते हैं। उनका जन्म भी एक ही तरह से होता है। जीव स्त्री रूप में जन्म लेकर मानव-समाज का बहुत बड़ा उपकार करता है। आज की नन्हीं-सी बालिका ही कल की जननी बनने वाली है। वह किसी की बेटी, किसी की बहन और किसी की माँ या पत्नी होती है। माँ बनकर वह सम्पूर्ण समाज की सम्पोषिका और संरक्षिका बनती है। वह अपनी कोख से मनुष्य को न केवल जन्म देती है, बल्कि पग-पग पर अपना स्नेह, दुलार, माया-ममता और सहयोग देकर जीवन के हर क्षेत्र को सफल बनाती है।

लेकिन यह कितनी शर्म की बात है कि यह समाज उसके विवाह के नाम पर दहेज की अनाप-शनाप माँग करता है। यह दहेज-प्रथा भारत के पवित्र आँचल पर अमिट कलंक का बदनुमा दाग है। अब इसको छुड़ाना बहुत ही जरूरी हो गया है। छुआछूत, जातिवाद और अंधविश्वास जैसी ही हमारे समाज की एक अन्य बुराई है-दहेज प्रथा। यह प्रथा आज जितनी बुराइयों एवं सामाजिक समस्याओं का कारण बन गयी है, उन्हें देखते हुए हम इसे सामाजिक जीवन का कोढ़ कह सकते हैं। यह एक ऐसा अभिशाप है जिसकी काली विषभरी छाया ने समाज के शरीर को पंगु और हतचेत बना दिया है। भारतीय समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं, कोई ऐसी जाति नहीं, जिसे दहेज-तिलक के तक्षक ने नहीं डॅसा हो।

भले ही लेन-देन का स्वरूप अलग हो पर उसका लोभ सभी वर्गों को ग्रसित किये हुए है। सभी जातियाँ अपने बेटे-बेटियों के पवित्र वैवाहिक संबंध को लेन-देन के बटखरे पर तौलती जरूर हैं। बेटावाला अपने बेटे के विवाह योग्य होने से पहले ही अकड़ कर चलने लगता है और जब विवाह सम्बन्ध का ऐन मौका आ जाता है तब उसकी ऐंठ, अकड़, व्यावसायिकता और छल-छद्मों का क्या कहना। वह हर सूरत में कन्या-पक्ष से अधिक से अधिक वसूल लेना चाहता है चाहे उसके लिए कन्या का पिता दिवालिया क्यों न हो जाय, बिक क्यों न जाय या सारे जीवन के लिए दुसह्य ऋण-भार के नीचे दब क्यों न जाय पर उसकी माँग जरूर पूरी होनी चाहिए।

जिस घिनौने ढंग से दहेज का मोल-जोल होता है, लेन-देन का निबटारा होता है, वैसा तो किसी पशु मेले में भी नहीं होता है। फिर दहेज की कोई सीमा हो तो कहा जाय। जैसा लड़का, जैसी उसकी योग्यता, डिग्री, पद, पेशा, वैसा दहेज। बाप की माँग अलग, बेटे की चाह तमन्नाएँ अलग। हर औसत नवयुवक अपनी सारी मनोकामनाएँ -स्कूटर, रेडियो, कार, टेलीविजन, विदेश-यात्रा की अभिलाषाएँ अपने विवाह के है कन्या का बेचारा, दयनीय बाप। दहेज जुटाने के लिए वह दर-दर की ठोकरें खाता फिरता है, ऋण लेता है। उधार लेता है, पत्नी के जेवर और पैतृक जमीन बेचता है और विवश होकर कभी-कभी रिश्वत लेने का पाप भी करता है। इस तरह प्रारंभ होता है-आपदाओं का अनन्त सिलसिला।

जैसे कन्या उत्पन्न करना कोई भयानक पाप है। उधर पिता की दयनीय दशा पर आँसू बहाती लड़की अपने भाग्य को अलग कोसती रहती है। दहेज की भयावहता और उसकी बुराई पर बहुत से लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। शिवपूजन सहाय की कहानी ‘कहानी का प्लाट’ इसका यथार्थ चित्रण है। प्रेमचन्द के उपन्यास दहेज की बुराइयों का पर्दापाश करते हैं। फिर भी भारतीय समाज के लोग जागरूक नहीं हो पा रहे हैं-यह बात समझ में नहीं आती। आखिर इस तरह की बुरी प्रथा को बरकरार रख कर हम क्यों अपने सामाजिक विनाश को न्योता दे रहे हैं। दहेज की बलि-वेदी पर प्रतिवर्ष असंख्य युवतियाँ चढ़ रही हैं। वे बेमेल विवाह तथा अनेक प्रकार के शोषण की शिकार बनती हैं।

कुछ कुमारी रह जाती हैं। कुछ अनैतिक कर्म करने को विवश होती हैं तो कुछ आत्मघात कर लेती हैं। कुछ विवाहित वधुओं को भी कम दहेज लाने की सजा दी जाती है। उन्हें जीवित अग्नि की भेंट चढ़ा दिया जाता है। दहेज जैसी कुप्रथा का अंत दो ही तरीकों से संभव है-कानून के द्वारा रोकथाम कर और लोगों में जागरूकता लाकर, नैतिक-चेतना जगाकर। कानून से सुधार सम्भव है परन्तु समस्या का यह स्थायी हल नहीं हो सकता।

लेकिन नैतिक-चेतना के जागरण और हृदय-परिवर्तन के द्वारा इस राक्षसी कुप्रथा का सदा के लिए अंत सम्भव है। नैतिक जागरण के लिए स्वयं युवक-युवतियों को आगे आना होगा। इनको स्वयं अपने माता-पिता और अभिभावकों को दहेज न लेने के लिए विवश करना होगा। दहेज-लोलुपों का सामाजिक बहिष्कार करना होगा, उनको कानूनी दंड दिलाना होगा। ऐसे ही प्रयत्नों से दहेज जैसी बुराई खत्म हो पायेगी और समाज में सुख का मंगल-प्रभात फूटेगा।

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